Tuesday 7 May 2019

तलाश

*तलाश*

कितने ख्वाब संजोए मासूम आंखों में
वो‌ निकली थी घर से
बेखबर ज़माने की बेरहम नज़रों से।
चली थी ठान कर
मन में जिऊंगी ज़िन्दगी अपनी शर्तों पर।
हर कदम मिली एक नई अड़चन
मगर रुकी‌‌ नहीं झुकी ‌नहीं
बढ़ाती रही कदम मंज़िल की ओर।
कुछ नहीं था पास
बस एक विश्वास।
लड़ती रही कभी अपने अंदर के द्वंद से
कभी बाहर के सितम से।
ना छोड़ा दामन उम्मीदों का
ना डगमगाया कर्म विश्वास का।
सब ने बहुत समझाया
ज़िन्दगी कटती नही बिन हमसाया।
कई आए बन के रकीब
चाहते थे बदले उस का नसीब।
नहीं जानते थे वो बदलेगी सोच
नहीं बनेगी किसी पर कोई बोझ।
अकेले ही कर‌ लेगी गुज़र
और खुशी खुशी करेगी बसर।
वो चलती रही बढ़ती रही
रास्ते बनते गए
और वो चलती रही चलती रही ...

No comments:

Post a Comment